पानी संवारेगा गांव की तकदीर

अरविंद शर्मा

सीकर. उम्मीदें और प्रयास रंग लाए तो पानी गांवों की तकदीर बदलने में काफी मददगार साबित होगा और नीम का थाना क्षेत्र हरियाली की चादर ओढ़ लेगा। लोगों को दूसरे गांवों में पानी के लिए मारे-मारे फिरना नहीं पड़ेगा।
इस सपने को साकार करने के लिए सिंचाई विभाग ने खास प्रोजेक्ट तैयार किया है। प्रोजेक्ट के तहत पहाड़ से बहते पानी को इकट्ठा करके लोगों की प्यास बुझाने और सिंचाई के लिए उपयोग में लिया जाएगा। इसके साथ ही विभाग ने जल चेतना की अलख जगाने के लिए अभियान चलाने से लेकर कम पानी की फसलों पर बल देने के लिए जनजागति कार्यक्रम को भी प्रोजेक्ट का हिस्सा बनाया है।
इस सपने को साकार करने की शुरूआत रामसिंह की ढाणी के पहाड़ों से होगी। इस पूरी कवायद पर लाखों रुपए खर्च होंगे। प्रोजेक्ट के लक्ष्य हासिल करने के लिए सिंचाई विभाग की टीम ने सर्वे का काम पूरा कर लिया है। हालांकि कुछ मुश्किल सामने आएगी, लेकिन उनसे भी निबटने की प्लानिंग की जा रही है। इससे सूखे कुएं पानी से लबालब हो जाएंगे। विभाग के मुताबिक हर साल औसत से भी कम होती बरसात के कारण कुएं सूखते जा रहे हैं। जिस कारण पेयजल के लिए लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।
डब्ल्यूएचएस के तहत सूखे कुओं को रिचार्ज करने के लिए स्वीकर बनाए जाएंगे। इनसे बरसात का पानी इकट्ठा किया जाएगा। जिसके आधार पर सूखे कुएं पानी उगलने लगेंगे। कुओं में पानी आने के बाद नीमकाथाना क्षेत्र के लोगों को पानी के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। इस पानी को सिंचाई के साथ-साथ अन्य उपयोग में लिया जा सकेगा। इससे पेयजल की किल्लत भी दूर हो जाएगी।
जल चेतना की अलख
सिंचाई विभाग नीमकाथाना क्षेत्र में जल चेतना अभियान चलाएगा। अभियान को बड़े स्तर पर शुरू करने के लिए विभाग ने एक खास प्रोजेक्ट बनाया है, ताकि क्षेत्र में लोगों को पानी के लिए दूसरे गांवों की ओर भटकना नहीं पड़े। इसके अलावा किसानों को कम पानी की फसलें पैदा करने के लिए भी जागरूक किया जाएगा। विभाग के अनुसार क्षेत्र में औसत 531 एमएम बरसात होनी चाहिए, लेकिन 100 से 150 एमएम बरसात ही हो पा रही है। इसे ही ध्यान में रखते हुए जल चेतना अभियान व कम पानी की फसल बोने के लिए जन जागरण कार्यक्रम चलाने की रणनीति बनाई।
31 कुएं होंगे लबालब
रामसिंह की ढाणी के 31 कुएं पूरी तरह सूख चुके हैं। यहां बरसात के दिनों में रामसिंह ढाणी के पहाड़ से आने वाले पानी को स्वीकर बनाकर एकत्रित किया जाएगा। जिसके बाद कुओं की रिचार्जिग की जाएगी।
सर्वे का काम पूरा
पानी से गांव की तस्वीर बदलने की योजना के लिए सिंचाई विभाग के अधिकारियों ने सर्वे का काम पूरा कर लिया है। सर्वे रिपोर्ट के बाद ही अभियान का पूरा प्रोजेक्ट तैयार किया गया है। नीमकाथाना क्षेत्र के हालात सर्वे में खराब पाए गए थे। क्षेत्र के 32 कुओं में से 31 कुएं सूखे पड़े हैं। पानी के लिए लोगों को भटकना पड़ता है। वहीं सिंचाई के लिए किसानों को बरसात पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
* क्षेत्र में 31 कुएं सूख चुके हैं। ऐसे में पानी का संकट खड़ा हो गया है। इसे दूर करने के लिए विभाग ने यह खास प्रोजेक्ट तैयार किया है। किसानों व आम लोगों को पूरा लाभ मिलेगा।
- हनुमान सिंह महला, एक्सईएन, सिंचाई विभाग

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छत का पानी जान का दुश्मन

सचिन शर्मा

इंदौर। शहरों में वर्षा जल संग्रहण के नाम पर हो रही 'रूफ (छत) वॉटर हारवेस्टिंग देर-सबेर यहाँ की जनता और भू-जल दोनों के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अगर विषय विशेषज्ञों की मानें तो लोगों की अज्ञानता ही आगे चलकर उनकी बीमारियों का मुख्य कारण बनेगी। शहर के कई लोग अपने घरों की छतों पर जमा होने वाले पानी को सीधे पाइप के जरिए अपने बोरवेल में डालकर उसे रिचार्ज करने की खतरनाक कोशिश में लगे हुए हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दशक बाद बोरिंग से आने वाला पानी पीने लायक नहीं रह जाएगा।
केन्द्र और प्रदेश सरकारों द्वारा रेन वॉटर हारवेस्टिंग के लिए अनेक जनजागरण अभियान चलाए गए। लोगों को अपने ट्यूबवेल और बोरवेल रिचार्ज करने की तरह-तरह से सलाह दी गई। बारिश के पानी को सहेजने की बात लोगों को ठीक भी लगी, लेकिन जल्दबाजी में वे ऐसा काम कर रहे हैं जिसके दूरगामी परिणाम अत्यंत घातक होंगे।

एसजीएसआईटीएस कॉलेज (इंदौर का इंजीनियरिंग कॉलेज) में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख प्रो. आरके श्रीवास्तव इस मुद्दे पर कहते हैं कि रूफ वॉटर हारवेस्टिंग किसी भी तरह से पानी की समस्या का समाधान नहीं कर सकता। अगर देश के सारे घरों की छतों का पानी इकट्ठा कर लिया जाए तो भी पीने के पानी की सिर्फ 2 प्रश आवश्यकता पूरी होगी। इसलिए सतर्कता बरतनी चाहिए। वे कहते हैं कि लोगों की छतें गंदी रहती हैं। कुत्ते-बिल्लियों की पहुँच भी वहाँ आसान होती है। ऐसे में उनके पेशाब या अन्य गंदगी का वर्षाजल में मिलना कोई मुश्किल नहीं। प्रो. श्रीवास्तव के मुताबिक लोगों को समझना चाहिए कि उनका बोरवेल सिर्फ एक गड्ढा भर नहीं है बल्कि उसके तल में एक पूरी नदी बहती है जो एक बार प्रदूषित हो गई तो फिर उसे स्वच्छ करना असंभव होगा। उन्होंने बताया कि कई उद्योग भी 'रेन वॉटर हारवेस्टिंग' कर रहे हैं। यह घातक है क्योंकि इससे रसायनों के भू-जल में पहुँचने की आशंका है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इसके लिए कदम उठाना चाहिए।

रिचार्ज का तरीका
जमीन के अंदर एक्वाफर लेयर (यहाँ पानी नदी की तरह बहता है) होती है। इसे साफ बनाए रखना चाहिए क्योंकि अगर यह गंदी हुई तो कई लाख लोगों को लेने के देने पड़ जाएँगे। इसे स्वच्छ रखने के लिए बोरवेल सिस्टम को दुरुस्त रखना होगा। इसके लिए बोरवेल के आसपास 14-15 फुट गहरे गड्ढे बनाने चाहिए, इसके बाद काली मिट्टी की परत खत्म हो जाती है। इन गड्ढों में पत्थर, बोल्डर, रेत आदि डालकर भरना चाहिए और पानी का बहाव इन्हीं की ओर करना चाहिए। अगर इस तरह से पानी नीचे जाएगा तो वह स्वच्छ हो जाएगा।

नगर निगम का ध्यान दिलवाएँगे
इस मुद्दे पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी श्री एए मिश्रा कहते हैं कि वे इस बात पर नगर निगम का ध्यान दिलवाएँगे। खासकर उद्योगों द्वारा की जा रही वॉटर हारवेस्टिंग पर विशेष ध्यान दिया जाएगा क्योंकि वो सिर्फ खानापूर्ति कर रहे हैं।

धार जिले में दिख चुकी है बानगी

पाँच वर्ष पूर्व धार जिले के कुछ गाँवों में पीलिया और हैजा फैला था। शासन ने तीन सदस्यीय एक जाँच दल को वहाँ भेजा था। इसमें पीएचई के मुख्य अभियंता, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वैज्ञानिक और एसजीएसआईटीएस कॉलेज के विषय विशेषज्ञ एक सहायक प्राध्यापक को भेजा गया था। उस दल में गए इंजीनियरिंग कॉलेज के विषय विशेषज्ञ श्री सुनील अजमेरा ने बताया कि उस प्रकोप के पीछे वर्षा जल संग्रहण ही मुख्य कारण निकला। किसानों ने खेतों में जमा पानी कुओं में सीधे मिला लिया। उस पानी में फसलों में छिड़के गए कीटनाशक भी मिल गए। ग्रामीणों ने जब उस पानी को पीया तो उन्हें पीलिया और हैजा जैसी बीमारियों ने घेर लिया।

दिल्ली व इंदौर की मिट्टी में है फर्क
दिल्ली पठारी क्षेत्र पर बसा है। इस क्षेत्र में मुरम यानी सैंडी सॉइल है। इसकी पोरोसिटी बहुत होती है। यह पानी को आसानी से नीचे की ओर बह जाने देती है। यही कारण है कि भारी बारिश में भी दिल्ली में पानी जमा नहीं होता। इंदौर की मिट्टी काली है, जो पानी को नीचे नहीं उतरने देती। कोर क्षेत्र में पानी रिसने की संभावना खत्म कर दी जाती है। इस मिट्टी से लोग पानी नीचे नहीं उतार पाते और उसे पाइप के सहारे सीधे ही नीचे उतार देते हैं। यही बात उन्हें खतरे के और करीब ले जा रही है।
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वर्षा के पानी का संरक्षण

-आशीष गर्ग

पानी की समस्या आज भारत के कई हिस्सों में विकराल रूप धारण कर चुकी है और इस बात को लेकर कई चर्चाएँ भी हो रही हैं। इस समस्या से जूझने के कई प्रस्ताव भी सामने आएँ हैं और उनमें से एक है नदियों को जोड़ना। लेकिन यह काम बहुत महँगा और बृहद स्तर का है, साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से काफ़ी ख़तरनाक साबित हो सकता है, जिसके विरुद्ध काफी प्रतिक्रियाएँ भी हुई हैं। कहावत है बूँद-बूँद से सागर भरता है, यदि इस कहावत को अक्षरशः सत्य माना जाए तो छोटे-छोटे प्रयास एक दिन काफी बड़े समाधान में परिवर्तित हो सकते हैं। इसी तरह से पानी को बचाने के कुछ प्रयासों में एक उत्तम व नायाब तरीका है आकाश से बारिश के रूप में गिरे हुए पानी को बर्बाद होने से बचाना और उसका संरक्षण करना। शायद ज़मीनी नदियों को जोड़ने की अपेक्षा आकाश में बह रही गंगा को जोड़ना ज़्यादा आसान है।

तमिलनाडु: एक मिसाल
यदि पानी का संरक्षण एक दिन शहरी नागरिकों के लिए अहम मुद्दा बनता है तो निश्चित ही इसमें तमिलनाडु का नाम सबसे आगे होगा। लंबे समय से तमिलनाडु में ठेकेदारों और भवन निर्माताओं के लिए नए मकानों की छत पर वर्षा के जल संरक्षण के लिए इंतज़ाम करना आवश्यक है। पर पिछले कुछ सालों से गंभीर सूखे से जूझने के बाद तमिलनाडु सरकार इस मामले में और भी प्रयत्नशील हो गई है और उसने एक आदेश जारी किया है जिसके तहत तीन महीनों के अंदर सारे शहरी मकानों और भवनों की छतों पर वर्षा जल संरक्षण संयत्रों (वजस) का लगाना अनिवार्य हो गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि सारे सरकारी भवनों को इसका पालन करना पड़ा। पूरे राज्य में इस बात को व्यापक रूप से प्रचारित किया गया। नौकरशाहों को वर्षा जल संरक्षण संयंत्रो को प्राथमिकता बनाने के लिए कहा गया। यह चेतावनी भी दी गई कि यदि नियत तिथि तक इस आदेश का पालन नहीं किया जाता तो सरकार द्वारा उन्हें दी गई सेवाएँ समाप्त कर दी जाएँगी, साथ ही दंड स्वरूप नौकरशाहों के पैसे से ही इन संयंत्रो को चालू करवाया जाएगा। इन सबके चलते सबकुछ तेज़ी से होने लगा।

इस काम के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का जागरण कैसे हुआ इसके लिए हमें भूत की कुछ घटनाओं में झाँकना होगा। डॉ. शेखर राघवन, जो भौतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं उन पहले व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने चेन्नई के लिए वर्षा जल संरक्षण के लाभों के बारे में सोचा। हालाँकि चेन्नई में १२०० मिमी बारिश होती है, फिर भी शहर को पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ता है, जबकि राजस्थान जैसा सूखा राज्य अपना काम चला लेता है। निश्चित ही चेन्नई में ज़रूरत थी बारिश के पानी को बचाने की। गंगा आकाश में थी और शहर इससे अपने आप को तुरंत जोड़ सकता था। डॉ राघवन इन संयंत्रो के बारे में लोगों को बताने वाले चुनिंदा व्यक्तियों में से एक थे। उन्होने खुद अपने घर में एक संयंत्र लगवाया और पड़ोसियों में भी इस बात की जागरूकता फैलाने लगे और उनकी मदद करने लगे।

सुदूर अमेरिका में राघवन के इस काम की वजह से चेन्नई में पैदा हुए रामकृष्णन को ये याद आने लगा कि कैसे उनकी माँ सुबह ३ बजे उठ कर पानी भरती थी। राम और राघवन में संपर्क हुआ और उन्होने आकाशगंगा नामक संस्था की स्थापना की। इसका उद्देश्य था लोगों में इस बात की जागरूकता फैलाना कि कैसे 'वजस' समाज की पानी की ज़रूरतों के हल बन सकते हैं। उन्होने चेन्नई में एक छोटे से मकान में वर्षा केंद्र बनवाया जहाँ 'वजस' की सरलता को दिखाया गया था। इस काम के लिए राम ने खुद ४ लाख रुपए लगाए और विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र 'विपके' ने भी कुछ सहयोग और योगदान दिया। २१ अगस्त २००२ को तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने इस छोटे से भवन का उद्घाटन किया। इस तरह से 'वजस' ने लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया।

पानी के कुएँ
अगले एक साल के अंदर तमिलनाडु के लगभग हर भवन में, ख़ासतौर से चेन्नई में 'वजस' लग चुके थे। उस साल बारिश भी कम हुई लेकिन परिणाम चौंकाने वाले थे और सुखद थे। चेन्नई के कुओं में पानी का स्तर काफी बढ़ चुका था और पानी का खारापन कम हो गया था। सड़कों पर पानी का बहाव कम था और पहले जो पैसा पानी के टैंकरों पर खर्च होता था, लोगों की जेबों सुरक्षित था।

चेन्नई में एक नया जोश था। आज लगभग हर आदमी इस काम में विश्वास करता है। लोग कुओं की बातें ऐसे करने लगे हैं जैसे अपने बच्चों के बारे में लोग बातचीत किया करते हैं क्लब, विद्यालय, छात्रावास, होटल सब जगह पर कुओं की खुदाई होने लगी है।

रामकृष्णन चेन्नई स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान 'आई. आई. टी.' के पूर्व छात्र थे। आई. आई. टी. में करीब ३००० छात्रों के लिए छात्रावास बनें हैं जिनके नाम भारत की प्रसिद्ध नदियों के ऊपर रखे गए हैं। पूरा कैम्पस करीब ६५० एकड़ के विशाल हरे भरे प्रांगण में फैला हुआ है। उन्होंने भारत की अपनी नियमित यात्रा के दौरान बड़ी विडंबनाओं को देखा उनको पता चला कि हाल ही में हुई पानी की कमी के कारण संस्थान को दो महीनों के लिए बंद रखना पड़ा था। पर राम के द्वारा 'वजस' की तारीफ़ करे जाने के बाद छात्रावासों में धीरे-धीरे 'वजस' को लगाया गया और इसका परिणाम है कि अब संस्थान को पहले की तरह पानी खरीदना नहीं पड़ता। एक और व्यक्ति जो वजस को गंभीरता से ले रहे हैं उनका नाम है गोपीनाथ, जो चेन्नई के रहने वाले हैं और एक व्यापारी व अभियंता है। उनका घर 'वजस' का आदर्श उदाहरण है। उन्होंने इस विचार को आसपास के कारखानों में भी फैलाया है। टी. वी. एस समूह के कई कारखाने विम्को, स्टाल, गोदरेज, और बोयस जैसी कंपनियों ने इस संयंत्र को लगवाया है और ये संख्या बढ़ती ही जा रही है। (पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें)

ताज़ा यादें
वर्षा जल को बचाने के कई पुराने व सस्ते किंतु निष्क्रिय तरीके हैं। पहले भारत के गाँवों में तालाब हुआ करते थे। राजीव गांधी ग्राम पेयजल योजना सराहनीय थी लेकिन जैसे शहरों में गाय के थन और दूध का संपर्क टूट गया है वैसे ही इस योजना ने तालाबों और जलापूर्ति के बीच का संपर्क तोड़ दिया। इस योजना के कारण लोग पंचायत और विकास अफ़सर अपनी-अपनी व्यक्तिगत स्तर की पानी के प्रबंधन संबंधी ज़िम्मेदारियों से विमुख होने लगे। लोगों का विश्वास था कि जैसे प्लास्टिक के पैकेट में दूध मिलता है वैसे ही ट्यूबवेल पानी की आपूर्ति करेंगे। इस कारण तालाबों को अनदेखा किया गया और उनके ऊपर मिट्टी और रेत जमा होती गई।

रामकृष्णन ने ठूठूक्कुड़ी जिले के विलाथीकुलम नामक गाँव के एक तालाब को पुर्नजीवित करने का निश्चय किया। इस परियोजना की रूपरेखा बनाने में उनको "धान संस्था" के रूप में एक उत्तम सहयोगी भी मिल गया और चलाने के लिए एक छोटे स्थानीय समूह विडियाल ट्रस्ट का सहयोग भी मिला। धान ने सबसे पहले जिस गाँव के तालाब का पुनरुद्धार किया था उसी के नाम पर उनका काम "एडआर माडल" के नाम से मशहूर था। इस काम में स्थानीय लोग, ग्राम पंचायत, सरकार एक मार्गदर्शक जैसे कि धान संस्था, और पैसे देने वाले सब मिलकर काम करते थे। विलाथीकुलम में, जहाँ सरकारी पानी के आने की संभावना न के बराबर रहती है, इन पुर्नजीवित तालाबों ने नया उत्साह, उमंग और सुरक्षा की भावना को भर दिया है। पंप और पाइप का इस्तेमाल अभी भी होता है लेकिन पानी का स्रोत बोरवेल नहीं है बल्कि एक तालाब हैं।
(रिपोर्ट के लिए यहाँ क्लिक करें)।

पानी के लिए स्वसहायता चेन्नई में एक सामाजिक प्रक्रिया बन गई हैं। राजाओं द्वारा बनवाए गए भव्य मंदिरों की टंकिया अब पानी से भरी जाती है। रोटरी क्लब ने आयानवरम के काशी विश्वनाथ मंदिर में टंकी को सुधरवाने में मदद की कपालीश्वर और पार्थसारथी पेरूमल मंदिरों की टंकियों से राज्य सरकार ने जमी मिट्टी को निकलवाया है और उनकी मरम्मत कराई है। पर शायद लोगों के काम का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है पम्मल में स्थित साढ़े पाँच एकड़ में फैले सूर्य अम्मन मंदिर की टंकी का पुनरूद्धार। दानिदा के सलाहकार मंगलम सुब्रमण्यम ने इस काम के लिए स्थानीय लोगों और व्यापारियों को जाग्रत किया और १२ लाख रुपए जमा किए। पम्मल ने सफलता देख ली और वहाँ इस काम को और आगे बढ़ाया जा रहा है।

कचरा युक्त गंदे पानी का उपयोग
आजकल चेन्नई में पानी का पुनरूपयोग एक चलन बन गया है। स्थानीय नागरिक पानी को साफ़ करके शौचालयों और बगीचों में दोबारा इस्तेमाल में ला रहे हैं। चेन्नई के सबसे ज़्यादा विचारवान भवन निर्माताओं, जिन्होंने वजस को लगाना प्रशासन के आदेश से पारित होने के पहले से शुरू कर दिया था, में से एक एलेक्रिटी फाउंडेशन अब गंदे पानी के पुनर्चक्रण के नए संयंत्र लगा रही है। उनका मानना है कि नालों में बहने वाले पानी का ८० प्रतिशत हिस्सा साफ़ करके पुन: उपयोग में लाया जा सकता है। सौभाग्य से इस मामले में चेन्नई में सफलता की कई कहानियाँ है।

चेन्नई पेट्रोलियम, जो एक बड़ा तेल शोधक कारखाना है और पानी का काफी प्रयोग करता है, ने पानी के पुनर्चक्रण में भारी सफलता हासिल की है। इसके लिए ये चेन्नई महानगरपालिका को प्रतिकिलो गंदे पानी के लिए आठ रुपए भी देते हैं। ये इस पानी की गंदगी के टंकियों में नीचे बैठने के बाद उल्टे परासरण (Reverse Osmosis) का प्रयोग करके ठोस पदार्थों को बाहर निकाल देते हैं। बाकी बचा पानी ९८.८ प्रतिशत साफ होता है और कई कामों में प्रयोग में लाया जा सकता है जैसे कि शौचालयों की सफ़ाई, बगीचों में प्रयोग। सफ़ाई से निकली कीचड़ को वनस्पति कचरे में मिलाकर खाद बनाई जाती है जो उनके वृहद प्रांगण को हरा-भरा रखने में काम आती है। ये काम बहुत बड़े स्तर पर किया जाता है। प्रति घंटे १५ लाख लीटर पानी की सफ़ाई की जाती है जो कारखाने की ज़रूरत का ४० प्रतिशत हिस्सा है और इससे शहर, व्यापार और पर्यावरण तीनों को लाभ होता है। इस काम को करने में और भी कई कारखानों ने रुचि दिखाई है।

अन्य कहानियाँ :
विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र "विपके" के संस्थापक अनिल अग्रवाल वजस के अग्रणी लोगों में से एक हैं। अपनी विश्वसनीयता की वजह से उन्होंने सन २००० में भारत की सरकारों को वजस को राष्ट्रीय मिशन के रूप में स्थापित किए जाने की ज़रूरत के बारे में बताया। सीएसई ने चेन्नई स्थित वर्षा केंद्र को तुरंत अपनी मंजूरी दे दी थी और इसके बाद उन्होने मेरठ उ. प्र. में भी एक वर्षा केंद्र की स्थापना की। उनका जालस्थल जल स्वराज प्रेरणा और जानकारी का एक उत्तम स्रोत है। वजस के प्रचार और प्रसार के लिए किए गए उत्कृष्ट काम के लिए सीएसई को स्वीडन के प्रतिष्ठित स्टॉकहोम जल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

पानी की समस्याओं का निवारण करने के लिए केवल कुछ अनुकरणीय उदाहरणों की और कुछ सामान व जानकारी की ज़रूरत है। गोपीनाथ ने राष्ट्रपति भवन में भी एक योजना शुरू की। आई. टी. सी. समूह के कुछ होटलों में भी इस योजना पर अमल हो रहा है। ये कुछ ऐसे उदाहरण है जिनसे कि आम आदमी को थोड़ा पैसा और थोड़ा प्रयास लगा कर इस काम को करने की प्रेरणा मिलती है। इन कामों के लिए किसी भी सहायता या निगरानी की ज़रूरत नहीं है और न ही नदियों को जोड़ने जैसी बृहद परियोजनाओं की। इन बड़ी परियोजनाओं को करने में समय लगता है, पैसा लगता है, और साथ में भारी पर्यावरणीय राजनीतिक और तकनीकी क्षतियाँ हो सकती हैं, और सबसे बुरी चीज़ जो होती है वो ये कि लोग अपने आप काम करना छोड़ के सरकार से उम्मीद लगाए रखते हैं। इन सब कामों में ठेकेदारों के मिले होने की वजह से भ्रष्टाचार फैलता है। पहले ही कई दूरदराज़ के गाँवों में पानी की बोतल को दूध से भी महँगा बेचा जाता है। नई पीढ़ी को ये भी मालूम नहीं कि पानी हमारे लिए प्रकृति की एक अमूल्य किंतु नि:शुल्क भेंट है।

कोई भी सौर ऊर्जा को पैदा करने के बाद उसको जगह-जगह घुमाने के बारे में नहीं सोचता है। ये वहीं उपयोगी है जहाँ सूरज की किरणें गिरती है। तब पता नहीं नदियों पर हर जगह बाँध बना के, पंप और पाइप लगा के क्या हासिल होने वाला है?
६३ वर्षीय श्री स्याम जी जाधवभाई गुजरात में राजकोट के एक बहुत कम पढ़े लिखे किसान हैं। उनकी सौराष्ट्र लोक मंच संस्था ने साधारण वजस संयंत्रों का प्रयोग करके गुजरात के लगभग ३ लाख खुले कुएँ और १० लाख बोर-वेल को पुनर्जीवित कर दिया है जबकि विशालकाय सरदार सरोवर योजना मुश्किल से १० प्रतिशत गुजरातियों को भी लाभ नहीं पहुँचाएँगी। स्पष्ट है कि इस नए प्रयास में लाखों नागरिकों को अपना पानी अपने इलाके में खोजना है न कि कहीं दूर से पाइप लगा कर लाना है।
ये तो पता नहीं कि छोटी योजनाएँ सुंदर होती है या नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि जहाँ पर भी प्रकृति के संसाधन बिखरे हुए होते है, वहाँ यह योजना बहुत प्रभावी सिद्ध होती हैं और देर तक उपयोग में लाई जा सकती है और सभी को लाभान्वित करती है।

जल संरक्षण संबंधी कुछ संस्थाओं के जालस्थल:
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (नई दिल्ली)
तरुँ भारत संघ, अलवर(राजस्थान): श्री राजेन्द्र सिंह
धान संस्था, मदुरै(तमिलनाडु): श्री वासीमलाई
भारतीय कृषि उद्योग संस्था, पुणे(महाराष्ट्र): श्री नारायण हेगडे
रालेजांव सिधी, जिला अहमद नगर(महाराष्ट्र): श्री अन्ना हज़ारे
सहगल संस्था, गुडगाँव (हरियाणा): डॉ. सूरी सहगल
मोरारका संस्था, जयपुर(राजस्थान): श्री मुकेश गुप्ता
विकास के विकल्प, दिल्ली: डॉ. अशोक खोसला
केआरजी वर्षाजल संरक्षण संस्था(तमिलनाडु): श्री गोपीनाथ
आकाश गंगा संस्था, चेन्नई
(अनुवादक आशीष गर्ग, मूल लेखhttp://www. goodnewsindia. com/index. php/Magazine/story/98/ साभार गुडन्युज इंडिया)

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पुराना है जल संकट से निपटने का इतिहास

दिल्ली और इसके आसपास के इलाकों में जल संकट गहराने से जल संसाधनों के संरक्षण और वर्षा जल संचयन पर विचार हो रहा है ऐसे में जल समस्या पर काम करने वाली संस्था जनहित फाउंडेशन ने भारत की जल संस्कृति से आम आदमी को रूबरू करवाने का प्रयास किया। 'पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशय : ऐतिहासिक विरासत' नामक पुस्तक में भारत की प्राचीन जल संचयन प्रणालियों के अलावा दिल्ली से सटे मेरठ और उसके आस-पास मौजूद ऐतिहासिक जलाशयों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है।

पुस्तक में संकलित जल संसाधनों का दोहरा महत्व है। अपने सौ पुत्रों के श्राध्द के लिए युधिष्ठिर द्वारा गांधारी को भेंट में मिला गांधारी तालाब हो, अभिज्ञान शाकुंतलम में वर्णित पक्का तालाब या फिर ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ कुंड की राख से बना पवित्र गंगोल तालाब इन जलाशयों का अस्तित्व ऐतिहासिक कारणों से भी जरूरी था और पानी की आपूर्ति के लिए भी।

संस्था द्वारा साल 2003 में करवाए गए अध्ययन 'पानी घणो अनमोल' के अनुसार, सरकारी दस्तावेज इस बात के गवाह हैं कि अकेले मेरठ जिले में 3062 तालाब मौजूद हैं। आदिकाल से मौजूद इन जलाशयों की लगातार उपेक्षा का ही नतीजा है कि इनमें से 80 फीसदी से ज्यादा जलाशय खत्म हो चुके हैं। सरदाना के पास स्थित सलवा गांव में 37 जलाशय थे जिसके चलते यह गांव पानी के संकट से दूर था लेकिन 2007 में स्थिति यह है कि सलवा गांव बूंद-बूंद पानी को तरस रहा है।

पुस्तक इस बात पर जोर देती है कि जल संकट से निपटने के लिए पुरातत्व विभाग की सहायता से इस ऐतिहासिक धरोहर का संरक्षण भी जरूरी है और वर्षा जल संचयन को दोबारा अपनाना भी।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

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पानी को मोहताज नहीं हैं आदिवासी

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस
गिरीश दुबे


वाराणसी। सोनभद्र आजकल पानी की समस्या से जूझ रहा है लेकिन इसी जिले के परासपानी गाँव में पानी ही पानी है। इस गांव के लोगों को पानी के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ता और न ही इनके पशुओं को पानी के लिए मीलों भटकना पड़ता है।

दरअसल, यह सब कुछ इलाके के आदिवासियों के सार्थक प्रयासों का ही नतीजा है। पानी की समस्या से निजात पाने के लिए यहां के आदिवासियों ने परंपरागत तकनीक का इस्तेमाल करके पहले छोटे-छोटे तालाब बनाए और बरसात का पानी उसमें इकट्ठा किया।

अब यह पानी न सिर्फ पशुओं के पानी के काम आ रहा है बल्कि लोगों की आम जरूरतों को भी पूरा कर रहा है। लगभग एक दशक तक पानी के लिए तरस चुके 80 वर्षीय बलराम खरवार अब अक्सर खुशी के गीत गुनगुनाया करते हैं। गरीबी में जीवन बसर करने वाले बलराम बताते हैं कि पानी की कमी इस इलाके के लिए एक बड़ी समस्या थी।

सबसे अधिक कष्ट हमारे पशुओं को होता था लेकिन अब हमारे गांव के चारों तरफ तालाबों में पानी भरा है और पानी की कोई कमी नहीं है। कठिनाई के दिनों में यहां के आदिवासियों को एक तरकीब सूझी और उन लोगों ने उबड़-खाबड़ जमीन को घेरकर तालाब का रूप दे डाला। धीरे-धीरे बरसात का पानी इकट्ठा होने दिया। पहले वर्ष गांव में केवल दो तालाब बनाए गए थे। अब सात हो गए हैं।

इन तालाबों के बन जाने से पानी की समस्या पूरी तरह से खत्म हो गई है। गुरमुरा गांव के सुखदेव और राजदुलारे बताते हैं कि पहले हम लोगों को खाने से ज्यादा पानी कि चिंता लगी रहती थी। गांव में यह खुशहाली किसी सरकारी मदद से नहीं बल्कि आदिवासियों की जीतोड़ मेहनत से आई है।

अब तक जो तालाब सूख जाया करते थे उनमें अभी भी पानी भरा हुआ है। आदिवासियों द्वारा छोटे छोटे तालाब बनाकर पानी की समस्या से निजात पाने की सफल तकनीक से प्रेरित होकर ‘पयस्वनी’ नामक स्वयंसेवी संस्था आगे बढ़ कर इस तकनीक को अन्य आदिवासी इलाकों में आजमाने की कोशिश में लगी है।

संस्था ने चौपन ब्लाक के सलईबनवा, बाभनमरी, चिकारादाद, गुरमुरा और तेवरी गांव में लगभग तीन दर्जन छोटे छोटे तालाब बनवाए हैं। मात्र दो वर्षों के प्रयास से पूरा इलाका न सिर्फ हरा-भरा हो गया है बल्कि इस क्षेत्र की तस्वीर ही बदल गई है।

पयस्वनी के संयोजक नरेन्द्र नीरव कहना है कि सरकार ‘वाटर हारवेस्टिंग’ के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है लेकिन यहां के अदिवासियों ने बिना एक रुपया खर्च किए न सिर्फ इस क्षेत्र का जल स्तर बढ़ा दिया है बल्कि खुद के लिए शुद्ध पानी का भी इंतजाम कर लिया है।

भूगर्भ शास्त्री योगेन्द्र सिंह क मनना हैं कि यदि किसी इलाके में बरसात का पानी पूरी तरह इकट्ठा कर लिया जाए तो न सिर्फ उस इलाके में इफरात पानी की व्यवस्था हो जाएगी बल्कि क्षेत्र का भूजल स्तर भी ऊपर उठ जाएगा। सोनभद्र के आदिवासियों ने ऐसा ही किया है। इनका काम देश के लिए एक प्रेरणादायी है।
http://www.josh18.com

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बड़े बांधों में नहीं छोटे-छोटे चेकडैम में छिपा है उपाय

मनसुख भाई (जलक्रांति ट्रस्ट)

गुजरात सरकार 1.5 लाख से लेकर 15 लाख रुपए में सिर्फ एक चेक डैम बनाती थी। तब हमने कहा कि 15 चेकडैम का खर्चा सिर्फ एक लाख आएगा। लोग मानने को तैयार नहीं थे कि इतने कम खर्च में भी चेकडैम तैयार हो सकता है। मैंने कहा कि यह मेरी जिम्मेदारी है।
गुजरात में सबसे बड़ी समस्या पानी की है। पानी की कमी से वहां खेती-बाड़ी बर्बाद हो रही थी। हालत यह हो गई थी कि परिवार का एक आदमी पानी जुटाने में लगा रहता था। सरकार के बजट का एक बड़ा हिस्सा लोगों को पानी देने में खत्म हो जाता था। ऐसी परिस्थिति 1984 से लेकर 1998 तक रही। गुजरात का पर्याय अकाल बन गया। सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात की हालत बहुत खराब हो गयी थी। तब मेरे दिमाग में एक सोच आयी। मुझे लगा कि पानी के बारे में लोग, सरकार, बुध्दिजीवी और इंजीनियर क्या कर रहे हैं? मेरे बचपन में हर कुएं में पानी होता था। पहले लोगों को 100-200 फीट जमीन खोद कर पानी मिल जाता था। लेकिन धीरे-धीरे पानी का स्तर गिरते-गिरते 1000 फीट तक चला गया। मैं सोचने लगा कि क्या हम 2000 फीट तक जाएंगे, फिर तो यह धरती नष्ट हो जाएगी। बिल्कुल पानी खत्म हो जाएगा। पानी के इस अंधाधुंध दोहन का पर्यावरण पर भी काफी बुरा असर पड़ा। गांव के पास आने पर भी नहीं पता चलता था कि यहां कोई गांव है। सभी वृक्ष सूख गए थे और पक्षी लुप्तप्राय हो गए थे।

उस स्थिति से निपटने के लिए मुझे लगा कि हरेक गांव में नदी-नाले के उफपर पक्के या कच्चे बांध बनवाने चाहिए। तब सरकार की इस बारे में कोई योजना नहीं थी। गांव के किसान हर साल लाखों रुपया बोरिंग और इलेक्ट्रिक मीटर में गंवा देते थे। मैंने महसूस किया कि एक साल का रुपया अगर पक्के बांध (चेक डैम) बनाने में लगाया जाये तो यह समस्या 50 साल के लिए हल हो सकती है। यह बात मैंने एक हजार की आबादी वाली बस्ती फाला में रखी। मैंने कहा कि आपके गांव में 15 छोटे-छोटे बांध बन सकते हैं। गांव वालों के साथ सर्वे करने पर यह पता चला था। उसका खर्चा एक लाख रुपया आ रहा था। जबकि गुजरात सरकार 1.5 लाख से लेकर 15 लाख में सिर्फ एक चेक डैम बनाती थी। तब हमने कहा कि 15 चेकडैम का खर्चा सिर्फ एक लाख आएगा। वो मानने को तैयार नहीं थे कि इतने कम खर्च में भी चेकडैम तैयार हो सकता है। मैंने कहा कि यह मेरी जिम्मेदारी है। फिर मैंने कहा कि चलो एक बांध के खर्च की व्यवस्था मैं खुद करूंगा। मेरे चार-पांच मित्र थे। मैंने सोचा कि यह हमारा धर्म माना जाए, राष्ट्र सेवा मानी जाए या समाज सेवा मानी जाए। हमने एक बांध का पैसा दिया। फिर लोगों को प्रेरणा मिली और गांववालों ने बाकी बांधों को बनवाने के लिए रुपया इकट्ठा कर लिया।

बाद में मैंने कहा कि चेकडैम बनाने के लिए लोग श्रमदान करें क्योंकि हमारे पास पैसे की कमी है। चूंकि पानी की कमी के कारण सभी किसान बेकार बैठे हैं, इसलिए पूरे गांव के लोग श्रमदान में आएं। तब सरपंच जो मेरी उम्र का था, हंसने लगा। उसने कहा कि कोई कभी चेकडैम में श्रम करने नहीं आएगा। इस पर श्रमदान की शुरूआत भी मैंने खुद ही की और देखते-देखते पूरा गांव श्रमदान में लग गया। एक महीना से ज्यादा श्रमदान चला और 15 नहीं 17 बांध बना दिये गये, वह भी सिर्फ एक लाख दस हजार रुपए में।

बाद में हमने संकल्प किया कि दो साल हम देश के लिए दे देंगे। मैंने तय किया कि अपनी गाड़ी लेकर मैं गांव-गांव जाकर काम कराऊंगा, क्योंकि यह सौराष्ट्र की आवश्यकता है या यों कहें पूरे गुजरात की आवश्यकता है। हमने जो पहला माडल गांव बनाया, वहां 151 बांध सिर्फ 10 लाख रूपये में बनाए। गुजरात में औसतन प्रति व्यक्ति 95 रूपये एक पक्का बांध बनाने का खर्च था। 20 नवंबर 1999 को 'जलक्रांति सम्मेलन' बुलाया गया। इसमें पचास हजार लोग आए। तब तो संस्था भी नहीं थी। अभी हमारी जलक्रांति ट्रस्ट नामक संस्था है। उस सम्मेलन में गुजरात सरकार के प्रतिनिधिा भी आए। हमारे प्रयोगों से प्रेरित होकर गुजरात सरकार ने सरदार पटेल सौभाग्य जलसंचय योजना बनायी। लोग गुजरात सरकार के इंजीनियरों से पूछने लगे कि आप लाखों रुपयों में बांध बनाते हैं, जबकि मनसुख भाई गांव-गांव में 5000 से लेकर 50,000 तक में चेक डैम बनाते हैं। इतना अंतर क्यों? मैं उनकी निंदा नहीं कर रहा हूं पर दु:ख के साथ बताना चाहता हूं कि उस वक्त गुजरात के इंजीनियर, सचिव और सिंचाई मंत्री भी बोलते थे कि वो चेकडैम तो एक बारिस में गिर जाएंगे। पर आज तक हमारा एक भी बांध गिरा नहीं है। मैं बारहवीं तक पढ़ा हूं और मैं इंजीनियर नहीं हूं। इसके बावजूद तीन सौ गांवो में ना किसी इंजीनियर की जरूरत पड़ी, ना कलम की जरूरत पड़ी और ना ही दूरबीन की जरूरत पड़ी। हमने अपने पारंपरिक ज्ञान से ही सारा काम किया।

इन बांधों की वजह से सालाना तीन करोड़ रुपये का कृषि उत्पादन बढ़ा है। गुजरात बहुत आगे चलने वाला राज्य है, लेकिन दु:ख की बात है कि हर गांव का मजदूर सोचता है कि मेरा लड़का गांव में नहीं रहेगा। जिसके पास 50 एकड़ जमीन है वह भी सोचता है कि मेरा लड़का गांव में नहीं रहेगा। किसी को गांव में रहना नहीं है। मैं सब जगह चिल्ला-चिल्ला कर कहता हूं कि तीस साल के बाद इस देश के किसान जमीन के मालिक नहीं रहेंगे। उद्योगपति देश की जमीन के मालिक होंगे। हमारे यहां ऐसा हो रहा है। किसान जमीन बेच रहा है और उद्योगपति जमीन खरीद रहे हैं।

उत्तार प्रदेश और मध्य प्रदेश के सभी नदी-नाले खाली पड़े हैं। इन प्रदेशों की दु:ख-गरीबी का यही कारण है। अगर दस साल सभी जगह पानी रोक लिया जाए तो ये प्रदेश भी गुजरात जैसे खुशहाल हो जाएंगे। यहां के एक किसान ने मेरे पास आकर बताया कि उसके पास 5 एकड़ जमीन है, कोई अन्य व्यवसाय नहीं है। फिर भी उसके पास 10 लाख रुपया एफडी में है और पक्का मकान है। यह जानकर मुझे विश्वास हो गया कि एक किसान भी सुखी जीवन जी सकता है। लेकिन इसके लिए लोगों को, समाज सेवी संस्थानों को और सरकार को सभी को आगे आना होगा।

हमारी नर्मदा योजना बीस साल से बन रही है। लेकिन अब तक खेतों में पानी नहीं पहुंचा। जबकि चेकडैम का परिणाम तुरंत मिलता है। डैम बना, बारिश हुई और पानी खेतों में रुकना शुरू हो गया। हमने तो बारिश के मौसम में ही सैकड़ों चेकडैम बनाए। जैसे ही डैम बना, तीन-चार दिनों में बारिश हुई और पानी उसमें भर गया। तीन दिन में आस-पास के कुओं में पानी चला गया। चेकडैम के फायदे और भी हैं। जहां चेकडैम बनाते हैं वहां नीचे जमीन में पानी तीन-तीन और कहीं-कहीं चार-चार किमी तक फैल गया है। जहां छोटे पथरीले नाले हैं, वहां 500 से 700 मी. की दूरी पर ऐसे पक्के बांध बनाए जाने चाहिए। जब पानी की उपलब्धाता बढ़ेगी तो खेतों में उत्पादन अपने आप दोगुना हो जाएगा।

मैंने बचपन में देखा है कि जब-जब अकाल पड़ता था, लोग गांवों में अपने गाय-बैल मुफ्रत में छोड़ दिया करते थे। स्थिति सामान्य होने पर बाद में ढूंढने निकलते थे। किसान जितना कमाता था वह सब इस चक्कर में चला जाता था। जहां चेकडैम बने हैं वहां इसके बाद दो अकाल आ चुके हैं लेकिन एक भी किसान को अपने गाय-बैल को छोड़ना नहीं पड़ा। सिर्फ गौशाला बनाना गाय के उध्दार का रास्ता नहीं है। खुद भगवान आकर आपके गांव में रहें लेकिन यदि पीने का पानी नहीं होगा तो वहां गाय बचने वाली नहीं है। इसलिए गाय को बचाना है तो गांव को पहले जल की समस्या से मुक्त करना होगा। तभी वह बच सकेगी। पर्यावरण को बचाना है तो गांव को पहले जल समस्या से मुक्त करना चाहिए। तभी पर्यावरण बच सकेगा।

लोग बताते हैं कि रोजगार एक बड़ी समस्या है। पर गुजरात में तो रोजगार की समस्या है ही नहीं। आम गुजराती को तो रोजगार मिलता है ही, साथ ही सौराष्ट्र और आस-पास के क्षेत्रें के लाखों आदिवासी परिवारों को भी हमारे यहां रोजगार मिल रहा है। यह सब चेक डैम की वजह से है। पिछले 10 साल में एक लाख चेक डैम बने हैं। चेकडैम का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं है। पहले ही साल से परिणाम मिलता है। उन सभी राज्यों में जहां जल संकट रहता है, उनके लिए चेकडैम से बढ़िया कोई और उपाय नहीं हो सकता। हमारे नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे बड़े बांधों का मोह छोड़ चेकडैम पर अपना ध्यान केंद्रित करें। इसके लाभ ही लाभ हैं।
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तालाबों ने किया सिंगारी गांव का कायाकल्प

सुधीर पाल
उन्हें नहीं पता कि देशभर की नदियों को जोड़ने की योजना बनाई जा चुकी है। इस योजना से होने वाले नफा-नुकसान से भी उनका कोई सरोकार नहीं है। उनके पास तो नदियां हैं ही नहीं, बस तालाब हैं और वे इसे ही जोड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं। तालाबों को जोड़ने के लिए उनके पास श्रम की पूंजी है और नतीजे के रूप से चारों ओर लहलहाती फसल। यही वजह है कि झारखंड के इस गांव में अब कोई प्यासा नहीं है। इस गांव के तालाब अब सूखते नहीं और फसलों की पैदावार ऐसी होती है कि लोगों के जीवन में खुशहाली आ गई। ग्रामीण किसान मजदूर विकास समिति के अधयक्ष एतवा बेदिया कहते हैं कि चार तालाब और बन जाएं तो लोग सौ फीसदी खुश हो जाएंगे।

दरअसल रांची जिले के अनगड़ा प्रखंड के टाटी पंचायत के सिंगारी गांव के लोगों को ऐसा मंत्र मिल गया है जिसकी बदौलत उन्होंने अपने गांव की किस्मत ही बदल दी है। करीब दो हजार की आबादी वाले इस गांव में 18 तालाब हैं और इसे तालाबों वाले गांव के नाम से जाना जाता है। लेकिन 1978 से पहले यहां के हालात कुछ और थे। गांव में तालाब तो थे लेकिन वे केवल बरसात में ही भर पाते थे। इन तालाबों का पानी सालभर की फसल और सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं था। पानी की कमी के चलते लोग असम, कलकत्ताा और धनबाद के ईंट भट्ठों और चाय बगानों में काम करने जाते थे। हालांकि वे बरसात से पहले वापस लौट आते, पर ज्यादा से ज्यादा 15 जनवरी तक ही अपने गांव में रह पाते। हर साल लगने वाले टुसू मेले के बाद गांव में वीरानी छा जाती थी। एक जानकारी के अनुसार गांव में सिर्पफ 12 परिवार ही रह जाते थे, जिनका किसी न किसी मजबूरी के चलते गांव से बाहर निकलना मुश्किल था।

हर साल हो रहे पलायन से गांव के बड़े-बुर्जुगों को गांव में सामाजिक असंतुलन पैदा होने का डर हो गया। लेकिन यह भी हकीकत थी कि बिना पानी के कोई भी गांव में रफककर अपने परिवार वालों को भूखे रखने का खतरा नहीं उठाना चाहता था। गांव में सामूहिक बैठक में इस पर विचार किया गया कि यदि वर्षा के पानी को रोका जाए और पानी का बैंक बनाया जाए तभी जीने का साधन मिलेगा। अब क्या था, गांववालों को तो जैसे एक मंत्र ही मिल गया। सबने मिलकर सबसे पहले पानी के स्रोतों को ढूंढ़ने पर विचार किया।

गांव के बुजुर्गों को अच्छी तरह पता था कि पानी कहां-कहां मिल सकता था। उन्होंने मिलकर वैसी जगह तालाब खोदने का फैसला किया जहां पहले दांडी होते थे। दांडी सदियों पुराने पानी के वे स्रोत थे जिनमें साल भर पानी हुआ करता था। पहले सिंगारी के हर टोले में एक दांडी हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे ये दांडी भी खत्म होने लगे थे।

तालाब खोदने में हजारों रपए खर्च होने थे और गरीब गांववालों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे इतने रफपयों का इंतजाम कर पाएं। लिहाजा बुजुर्गों की सलाह पर गांव के हर व्यक्ति ने तालाब खोदने में श्रमदान किया। इस दौरान वे लोग भी लौटकर अपने गांव आ गए थे जो रोजगार के चलते किसी न किसी शहर में चले गए थे। सिंगारी में पिछले एक दशक में कई विकास कार्य हुए हैं और इतना सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि गांव वालों ने सरकारी कार्यों और योजनाओं को अपना ही समझा। सरकार की सभी योजनाएं गांव में लागू तो हुईं लेकिन उसके रखरखाव और प्रबंधन की जिम्मेदारी गांव वालों ने अपने हाथ में ही रखी। यही वजह है कि गांव में आज 68 कुंए, 22 हैंडपंप और 18 तालाब हैं और सभी ठीक-ठाक हालत में हैं।

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कैसे सहज और व्यवस्थित हो तालाब निर्माण

- मणिशंकर उपाध्याय

पिछले एक दशक में भूमिगत पानी के अत्यधिक दोहन तथा अल्प वर्षा के चलते प्रदेश में पानी की कमी को देखते हुए नागरिक इसके संचय और संरक्षण के प्रति जागरूक हुए हैं। प्रदेश शासन ने भी वर्षा जल के संचय, जलस्रोत पुनर्भरण के लिए अनेक योजनाएँ कार्यान्वित की हैं। इनमें से वर्षा जल को तालाबों के माध्यम से सहेजने का प्रयास भी शामिल है। तालाब योजना के प्रदेश में अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं। पर ये काफी नहीं हैं। इसके प्रति अभी और जनजागृति की आवश्यकता है। तालाब निर्माण में कुछ तकनीकी मुद्दों पर ध्यान दिया जाए तो यह कार्य और सहज तथा व्यवस्थित हो सकता है।

प्रदेश के अधिकांश भौगोलिक क्षेत्र को प्रकृति ने उत्तम किस्म की उपजाऊ काली मिट्टी, पर्याप्त वर्षा व भूमि की निचली सतह में बेसाल्ट चट्टानों के काले पत्थर की कड़ी अपारगम्य परत प्रदान की है। सतह की काली चिकनी मिट्टी और निचली सतह की कड़ी चट्टानों के नीच मुरम (पीली मिट्टी) के लिए पारगम्य मोटी परत पाई जाती है। इसमें से पानी प्राकृतिक रूप से छनकर नीचे के काले पत्थर द्वारा निर्मित कड़ी परत में जाकर एकत्रित हो जाता है। यह एकत्रित जल या तो सुरंग रूपी धाराओं में गमन करता है या कहीं छोटे-बड़े भूर्गभीय जलाशय (एक्विफर) में इकट्ठा होकर संग्रहीत भंडार के रूप में पाया जाता है।

मालवा क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 700 से 1200 मिमी के मध्य दर्ज की जाती है। इसका मतलब है कि यदि पूरे क्षेत्र की सतह पर सीमेंट करके वर्षा जल को रोक लिया जाए तो पूरे क्षेत्र में 70 सेमी से 120 सेमी गहरा जलाशय बन जाए। इसे प्रति हैक्टेयर में मापा जाए तो प्रति हैक्टेयर (100 मीटर लंबा व 100 मीटर चौड़े) क्षेत्र में सात लाख से बारह लाख लीटर पानी विभिन्न वर्षों में वर्षा द्वारा प्राप्त होता है।

वर्षा द्वारा प्राप्त इस पानी को पहाड़ी क्षेत्रों के ऊपर से नीचे मैदान तक के रास्ते में रुकावटें बना दी जाएँ जिससे यह जमीन में नीचे रिसकर जा सके और बहने की गति धीमी होने से मिट्टी और जीवांश पदार्थ को बहाकर न ले जा सके। इसके लिए वानस्पतिक आवरण (आर्गेनिक मलच) का उपयोग सबसे उत्तम है।

वैसे ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की अपेक्षा अधिक जन-जागृति आ रही है। वर्षा जल को एकत्र कर संग्रहीत करने के लिए हर स्तर पर जनभागीदारी आवश्यक है। ग्रामीण क्षेत्रों में शासकीय सहयोग, पंचायतों की सक्रियता एवं जनभागीदारी से तालाबों का निर्माण निश्चित ही सराहनीय है। तालाबों के निर्माण में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान दिया जाए तो यह कार्य और सहज तथा व्यवस्थित रूप से संपन्न हो सकता है।

पुराने राजस्व दस्तावेजों (रिकॉर्ड) में जहाँ-जहाँ भी तालाब दर्शाए गए हैं, उन स्थानों पर पुराने तालाबों का सीमांकन, गहरीकरण व जीर्णोद्धार किया जाना सहज होगा। अनेक ग्रामों में पुराने तालाबों के जल आगम मार्ग, जल निर्गम मार्ग, घाट आदि के अवशेष अब भी देखने को मिलते हैं। इन्हें व्यवस्थित किया जाना चाहिए। नए तालाबों के लिए उपयुक्त स्थान वह हो सकता है जो निचले स्तर पर हो तथा पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक रूप से पानी भरता हो।

सामान्यतः दो प्रकार के तालाब बनाए जाते हैं, रिसन तालाब व जल संग्रहण तालाब। रिसन तालाब कम गहराई की मिट्टी वाले क्षेत्रों में बनाए जाते हैं। इनमें वर्षा जल एकत्र होकर कुछ समय में ही रिस-रिसकर जमीन की निचली सतहों में चला जाता है। ये भूमिगत जल भंडारों को समद्ध करते हैं। इनका अधिक समय तक प्रत्यक्ष (सीधा) उपयोग नहीं हो पाता है।

जल भरण व एकत्रीकरण तालाब गहरी, चिकनी, अपारगम्य मिट्टी वाले क्षेत्रों में बनाए जाते हैं। इनकी तलहटी में काली चिकनी मिट्टी की अपारगम्य परत होने के कारण पानी के निचली सतहों में रिसकर जाने की संभावना कम रहती है। इनमें अधिक समय तक पानी भरा रहने के कारण इनका उपयोग सिंचाई, पशुओं के पीने के लिए या निस्तार के लिए किया जा सकता है।

तालाब का निर्माण तश्तरी के समान किनारों पर उथला व बीच में गहरा किया जाना चाहिए। इस तरह के निर्माण से पानी के आगम मार्ग में जल की गति धीमी होकर बीच में रुकते हुए निर्गम मार्ग पर पहुँचता है। धीमी गति के कारण किनारों का कटाव नहीं होता है।

तालाबों में पानी आने के मार्ग में बालू रेत, गोल बजरी, बारीक गिट्टी, मोटी गिट्टी व बोल्डर की परतों का फिल्टर लगा देना चाहिए। इससे तालाब में मिट्टी नहीं आ पाती है। इसी प्रकार पानी के निर्गम (बाहर निकलने के) मार्ग पर रिवर्स फिल्टर लगा दिया जाता है। आगम के फिल्टर से तालाब में मिट्टी न जमने के कारण उसकी जल संग्रहण क्षमता में कमी नहीं आती है, फिल्टर के बाहर जमी मिट्टी को तीन-चार वर्ष में निकालें तथा फिल्टर की सामग्री को खराब होने पर बदल दें।

जहाँ तक हो सके तालाब की लंबाई, चौड़ाई या गोलाई को कम करके गहराई को अधिक रखा जाना चाहिए। यह जल संरक्षण के हिसाब से बेहतर होता है। इससे एकत्रित जल की खुली सतह का क्षेत्रफल कम हो जाता है और पानी के भाप बनकर उड़ने की मात्रा भी कम हो जाती है।

तालाब की जल संचयन की निर्माण क्षमता (डिजाइंड केपेसिटी) उस क्षेत्र विशेष की अधिकतम वर्षा गति व मात्रा से डेढ़ से दो गुना रखी जानी चाहिए जिससे अति अधिक वर्षा वाले वर्षों में भी जल प्लावन या तालाब के फूटने आदि का भय न रहे।

तालाब का जल निर्गम मार्ग एकदम सीधा न होकर तालाब के अंतिम छोर के बाजू में गोलाई में घुमाव देते हुए बनाया जाए। इससे जल निकास की गति धीमी व संतुलित रहेगी। जल निर्गम मार्ग के किनारों पर मिट्टी की दीवारों पर पत्थर की परत (पिचिंग) लगाएँ जिससे कटाव न हो सके। वर्ष पर्यन्त पानी से भरे रहने वाले तालाबों में मछलियाँ व कछुए डाल दें, ये पानी को स्वच्छ बनाए रखने में सहायक होते हैं।

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पारम्परिक सद्बुध्दि काम आई

पानी प्रकृति की सबसे बहुमूल्य देन है। सभी जीव जन्तु पानी के बल पर ही जिंदा रहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि ''पानी ही जीवन है'', लेकिन विडंबना देखो कि प्रकृति बारिश के रूप में हमें बेइंतहा पानी देती है, फिर भी हमें सूखे का सामना करना पड़ता है क्योंकि हम जल संग्रहण की अपनी पारंपरिक सद्बुध्दि खो बैठे हैं।

इसी कारण से आज दुनिया भर में पानी का संकट उग्र रूप धारण करता जा रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं है। उड़ीसा राज्य का एक बड़ा भू-भाग सूखे की चपेट में है। इनमें कालाहांड़ी और बोलनगीर ऐसे ही कुछ जिले हैं, जहां सूखे का सबसे ज्यादा प्रकोप है, लेकिन अगर हम इनके इतिहास में झांके तो बीसवीं सदी के मध्य तक यहां पानी के अभाव का सबसे कम संकट था।

भारत में ज्यादातर मौसमी बरसात होती है, जिसे यह पानी भूजल में पहुंचने से पहले ही बह जाता है और इसका थोड़ा अंश ही बड़े जलग्रहण क्षेत्र में बच पाता है। बांधों को बचाने के लिए 80 प्रतिशत पानी को नदियों में बहने दिया जाता है, जिससे भूजल पुनर्भरण न के बराबर ही हो पाता है।

इसके विपरीत भारत की पारम्परिक जल संग्रहण व्यवस्था ''जहां बारिश हो, वहीं पानी का संग्रहण करो'' के सिध्दांत पर आधारित है। इसका स्थानीय संस्कृति, समुदाय की विषिश्ट आवष्यकताओं और स्थलाकृति के अनुरूप ही अनुसरण किया जाता है। इस प्रकार इससे कृषि और घरेलू दोनों स्तरों पर पानी की जरूरत पूरी होती है। पूरे भारत में ऐसी अनेकों प्राचीन परम्पराएं मौजूद हैं, जैसे राजस्थान में कुंडी, टंका और जोहड़, महाराष्ट्र के बंधारा और ताल, मध्य प्रदेश की बंधी। इसी पारंपरिक धरोहर में उड़ीसा स्थिति संम्भलपुर भू- भाग में कट्टा व्यवस्था भी काफी विख्यात है। इन पारंपरिक व्यवस्थाओं में पारिस्थितिकीय संरक्षण पर विशेष जोर दिया जाता है, जबकि आधुनिक व्यवस्था में पर्यावरण का अति दोहन हो रहा है।

पुराने समय में गोंडवाना (जिसमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के कुछ हिस्से शामिल थे) में गोंड राजाओं द्वारा कृषि के लिए वर्षा जल का काफी कुशल ढंग से प्रबंधन किया जाता था।

मध्य भारत में गोंड के शासनकाल में सिंचाई और पानी प्रबंधन की उन्नत व्यवस्था खड़ी हुई। इन्होंने सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण करने वाले को लगान मुक्त जमीन प्रदान की। सम्भलपुर भू- भाग में इन पारंपरिक जल प्रबंधन व्यवस्थाओं को कट्टा व्यवस्था का नाम दिया गया। उड़ीसा के बारगढ़ जिले में स्थित बिजेपुर का ''रानी सागर'' कट्टा इन्हीं में से एक उदाहरण है। इस गांव के मुखिया यानी ''भोंटिया'' इन ढांचों के निर्माण और रख- रखाव की जिम्मेदारी उठाता था, जिसके लिए उसे लगान मुक्त ''मोगरा'' जमीन प्रदान की जाती थी।

शहरों में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी परियोजनाओं का निर्माण हुआ। लेकिन इन बड़ी परियोजनाओं की सूखे के वर्षों में जरूरत पड़ती थी। 19वीं सदी (1897) के भयंकर सूखे के दौरान संभलपुर का क्षेत्र सबसे कम प्रभावित हुआ क्योंकि यहां के किसानों ने कुशल जल प्रबंधन व्यवस्था बनाई हुई थी। आजादी के बाद इन जल धाराओं का प्रबंधन सरकार के हाथ में आ गया और फिर इसकी उपेक्षा होने लगी।

कट्टा व्यवस्था, एक समुदाय आधारित पारंपरिक जल संग्रहण व्यवस्था है, जिनका गोंड राजाओं के समय में निर्माण किया गया था, जो संभलपुर के भू भाग में काफी संख्या में मौजूद हैं। अतीत में इस व्यवस्था से लोगों की अनाज और पेयजल की सुरक्षा होती थी। आजादी के बाद यह व्यवस्था राज्य के नियंत्रण में आ गई, जिससे सामुदायिक सहभागिता घटती चली गई।

सन् 1996, 1999 और 2000 में सूखे के दौरान बिजेपुर के लोग पेयजल और खाद्यान्न संकट से बचे क्योंकि यहां रानी सागर कट्टा मौजूद है। लेकिन सटाल्मा ग्राम पंचायत के गांवों में कट्टा और बांध गाद से भर गए हैं।

रानी सागर में पूरे साल भर पानी भरा रहता है और इसके पानी के रिसाव से भूजल भंडारण में पानी का पुनर्भरण होता रहता है। इसलिए यहां गर्मियों में भी जमीन से 15- 18 फीट की गहराई पर पानी उपलब्ध हो जाता है, जबकि वहीं दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुओं में गर्मी के मौसम में पानी सूख जाता है।

इस अध्ययन से यह साबित होता है कि अगर सूखे से निपटना है, तो हमें एक बड़ी संख्या में कट्टा जैसे छोटे- छोटे जलग्रहण की जरूरत पड़ेगी, जिन पर सामुदायिक सहभागिता सुनिष्चित करनी होगी। अन्य सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भी इस पध्दति का अनुसरण किया जा सकता है।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें :
अनिन्दय अपराजिता,
कट्टा सिस्टम :
ए प्रैक्टिकल ट्रैडिशनल एप्रोच टू फाइट ड्राउट,
दिल्ली पब्लिक स्कूल,
सेक्टर-18 राउरकेला,
उड़ीसा

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