पारम्परिक सद्बुध्दि काम आई

पानी प्रकृति की सबसे बहुमूल्य देन है। सभी जीव जन्तु पानी के बल पर ही जिंदा रहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि ''पानी ही जीवन है'', लेकिन विडंबना देखो कि प्रकृति बारिश के रूप में हमें बेइंतहा पानी देती है, फिर भी हमें सूखे का सामना करना पड़ता है क्योंकि हम जल संग्रहण की अपनी पारंपरिक सद्बुध्दि खो बैठे हैं।

इसी कारण से आज दुनिया भर में पानी का संकट उग्र रूप धारण करता जा रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं है। उड़ीसा राज्य का एक बड़ा भू-भाग सूखे की चपेट में है। इनमें कालाहांड़ी और बोलनगीर ऐसे ही कुछ जिले हैं, जहां सूखे का सबसे ज्यादा प्रकोप है, लेकिन अगर हम इनके इतिहास में झांके तो बीसवीं सदी के मध्य तक यहां पानी के अभाव का सबसे कम संकट था।

भारत में ज्यादातर मौसमी बरसात होती है, जिसे यह पानी भूजल में पहुंचने से पहले ही बह जाता है और इसका थोड़ा अंश ही बड़े जलग्रहण क्षेत्र में बच पाता है। बांधों को बचाने के लिए 80 प्रतिशत पानी को नदियों में बहने दिया जाता है, जिससे भूजल पुनर्भरण न के बराबर ही हो पाता है।

इसके विपरीत भारत की पारम्परिक जल संग्रहण व्यवस्था ''जहां बारिश हो, वहीं पानी का संग्रहण करो'' के सिध्दांत पर आधारित है। इसका स्थानीय संस्कृति, समुदाय की विषिश्ट आवष्यकताओं और स्थलाकृति के अनुरूप ही अनुसरण किया जाता है। इस प्रकार इससे कृषि और घरेलू दोनों स्तरों पर पानी की जरूरत पूरी होती है। पूरे भारत में ऐसी अनेकों प्राचीन परम्पराएं मौजूद हैं, जैसे राजस्थान में कुंडी, टंका और जोहड़, महाराष्ट्र के बंधारा और ताल, मध्य प्रदेश की बंधी। इसी पारंपरिक धरोहर में उड़ीसा स्थिति संम्भलपुर भू- भाग में कट्टा व्यवस्था भी काफी विख्यात है। इन पारंपरिक व्यवस्थाओं में पारिस्थितिकीय संरक्षण पर विशेष जोर दिया जाता है, जबकि आधुनिक व्यवस्था में पर्यावरण का अति दोहन हो रहा है।

पुराने समय में गोंडवाना (जिसमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के कुछ हिस्से शामिल थे) में गोंड राजाओं द्वारा कृषि के लिए वर्षा जल का काफी कुशल ढंग से प्रबंधन किया जाता था।

मध्य भारत में गोंड के शासनकाल में सिंचाई और पानी प्रबंधन की उन्नत व्यवस्था खड़ी हुई। इन्होंने सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण करने वाले को लगान मुक्त जमीन प्रदान की। सम्भलपुर भू- भाग में इन पारंपरिक जल प्रबंधन व्यवस्थाओं को कट्टा व्यवस्था का नाम दिया गया। उड़ीसा के बारगढ़ जिले में स्थित बिजेपुर का ''रानी सागर'' कट्टा इन्हीं में से एक उदाहरण है। इस गांव के मुखिया यानी ''भोंटिया'' इन ढांचों के निर्माण और रख- रखाव की जिम्मेदारी उठाता था, जिसके लिए उसे लगान मुक्त ''मोगरा'' जमीन प्रदान की जाती थी।

शहरों में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी परियोजनाओं का निर्माण हुआ। लेकिन इन बड़ी परियोजनाओं की सूखे के वर्षों में जरूरत पड़ती थी। 19वीं सदी (1897) के भयंकर सूखे के दौरान संभलपुर का क्षेत्र सबसे कम प्रभावित हुआ क्योंकि यहां के किसानों ने कुशल जल प्रबंधन व्यवस्था बनाई हुई थी। आजादी के बाद इन जल धाराओं का प्रबंधन सरकार के हाथ में आ गया और फिर इसकी उपेक्षा होने लगी।

कट्टा व्यवस्था, एक समुदाय आधारित पारंपरिक जल संग्रहण व्यवस्था है, जिनका गोंड राजाओं के समय में निर्माण किया गया था, जो संभलपुर के भू भाग में काफी संख्या में मौजूद हैं। अतीत में इस व्यवस्था से लोगों की अनाज और पेयजल की सुरक्षा होती थी। आजादी के बाद यह व्यवस्था राज्य के नियंत्रण में आ गई, जिससे सामुदायिक सहभागिता घटती चली गई।

सन् 1996, 1999 और 2000 में सूखे के दौरान बिजेपुर के लोग पेयजल और खाद्यान्न संकट से बचे क्योंकि यहां रानी सागर कट्टा मौजूद है। लेकिन सटाल्मा ग्राम पंचायत के गांवों में कट्टा और बांध गाद से भर गए हैं।

रानी सागर में पूरे साल भर पानी भरा रहता है और इसके पानी के रिसाव से भूजल भंडारण में पानी का पुनर्भरण होता रहता है। इसलिए यहां गर्मियों में भी जमीन से 15- 18 फीट की गहराई पर पानी उपलब्ध हो जाता है, जबकि वहीं दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुओं में गर्मी के मौसम में पानी सूख जाता है।

इस अध्ययन से यह साबित होता है कि अगर सूखे से निपटना है, तो हमें एक बड़ी संख्या में कट्टा जैसे छोटे- छोटे जलग्रहण की जरूरत पड़ेगी, जिन पर सामुदायिक सहभागिता सुनिष्चित करनी होगी। अन्य सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भी इस पध्दति का अनुसरण किया जा सकता है।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें :
अनिन्दय अपराजिता,
कट्टा सिस्टम :
ए प्रैक्टिकल ट्रैडिशनल एप्रोच टू फाइट ड्राउट,
दिल्ली पब्लिक स्कूल,
सेक्टर-18 राउरकेला,
उड़ीसा

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